भूमिका

 

समन्वय की शर्तें

 


 

 

 


 

 

जीवन और योग

 

प्रकृति की क्रियाओं के दो प्रयोजन हैं । ऐसा प्रतीत होता है कि वे सदा ही मानव- क्रिया के महत्तर रूपों में हस्तक्षेप करते रहते हैं । ये रूप या तो हमारे साधारण कार्यक्षेत्रों से सम्बन्धित हो सकते हैं या उन असाधारण क्षेत्रों और उपलब्धियों की खोज कर रहे होते हैं जो हमें उच्च और दिव्य प्रतीत होती हैं । ऐसा प्रत्येक रूप एक ऐसी समन्वित जटिलता या समग्रता की ओर उन्मुख होता है जो पुनः विशेष प्रयत्न और प्रवृत्ति की विविध धाराओं में विभक्त तो हो जाती है, पर फिर एक अधिक विशाल और अधिक शक्तिशाली समन्वय में जुड भी जाती है । दूसरी बात यह है कि किसी चीज का रूपों में विकास एक प्रभावशाली अभिव्यक्ति का अनिवार्य नियम है; पर फिर भी वह समस्त सत्य और व्यवहार अत्यधिक कठोर ढंग से निर्मित होता है, पुराना पड जाता है और यदि अपना पूरा गुण नहीं तो कम- से-कम उसका एक बडा भाग तो खो ही देता है । इसे लगातार आत्मा की नूतन धाराओं से जीवन-शक्ति मिलती रहनी चाहिए जो मृत या मृतप्राय साधन में जीवन का संचार करती रहें तथा उसमें परिवर्तन लाती रहें; केवल तभी उसे नव-जीवन प्राप्त हो सकता है । सदा ही पुनर्जन्म लेते रहना भौतिक अमरत्व की शर्त है । हम एक ऐसे युग में निवास कर रहे हैं जो भावी सृष्टि की प्रसव-वेदना से व्याकुल है । इस युग में विचार और कर्म-संबंधी वे समस्त रूप जिनके अंदर उपयोगिता की या स्थिरता के किसी गुप्त गुण की सबल शक्ति मौजूद है एक सर्वोच्च परीक्षा में से गुजर रहे हैं तथा उन्हें पुनः जन्म लेने का अवसर प्रदान किया जा रहा है । वर्तमान जगत् 'मीडिया' के विशालकाय कडाह का दृश्य उपस्थित कर रहा है जिसमें सब कुछ डालकर उसके टुकड़े-टुकड़े कर दिये गये हैं, उन टुकड़ों पर प्रयोग किये जा रहे हैं तथा उन्हें एकत्रित और पुनः एकत्रित किया जा रहा है, जिससे या तो वे नष्ट होकर नये रूपों के लिये बिखरे हुए उपादान जुटाएं या फिर नव-जीवन प्राप्त कर के पुन: प्रकट हो जाएं अथवा यदि वे अभी और जीवित रहना चाहते हैं तो रूपांतरित हो जाएं । भारतीय योग अपने सार-तत्त्व में 'प्रकृति' की कुछ महान् शक्तियों की एक विशेष क्रिया या रचना है; यह स्वयं विशिष्ट एवं विभाजित है और विविध प्रकार से निर्मित है । अतएव, यह अपने बीज-रूप में मनुष्य-जाति के भावी जीवन के इन सक्रिय तत्त्वों में से एक है । यह अनादि युगों का शिशु है तथा हमारे इस आधुनिक समय में अपनी जीवन-शक्ति और सत्य के बल पर जीवित है । अब यह उन गुप्त संस्थाओं और संन्यासियों की गुफाओं में से बाहर निकल रहा है जिनमें इसने आश्रय लिया था; यह आजकल की जीवित मानवी शक्तियों

 

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और उपयोगिताओं के भावी संघात में अपना स्थान खोज रहा है । किन्तु इसे पहले अपने-आपको पाना है, प्रकृति के जिस सामान्य सत्य और सतत उद्देश्य का यह प्रतिनिधित्व करता है उसमें इसे अपने अस्तित्व के गहनतम कारण को ऊपरी तल पर लाना है तथा इस नये आत्म-ज्ञान और आत्म-परिचयके द्वारा अपनें पुनः प्राप्त और अधिक विशाल समन्वय को ढूंढना है । अपनी पुनर्व्यवस्था प्राप्त कर लेने के बाद ही यह जाति के पुनर्व्यवस्थित जीवन में अधिक सरलता से तथा अधिक शक्तिशाली रूप में प्रवेश पा सकेगा । इसकी क्रियाएं दावा करती हैं कि वे जाति के इस जीवन को अन्तरतम गुप्त कक्ष तक, अपने अस्तित्व और व्यक्तित्व की उच्चतम चोटीतक ले जायंगी ।

 

      अगर हम जीवन और योग दोनों को यथार्थ दृष्टिकोण से देखें तो संपूर्ण जीवन ही चेतन या अवचेतन रूप में योग है । कारण, इस शब्द से हमारा मतलब सत्ता में प्रसुप्त क्षमताओं की अभिव्यक्ति के द्वारा आत्म-परिपूर्णता के लिये किया गया विधिबद्ध प्रयत्न और मानव-व्यक्ति का उस विश्वव्यापी और परात्पर सत्ता के साथ मिलन है जिसे हम मनुष्य और विश्व में अंशत: अभिव्यक्त होता हुआ देखते हैं । किन्तु जब हम जीवन को उसके बाह्य रूपों के पीछे जाकर देखते हैं तो वह प्रकृति का एक विशाल योग दिखायी देता है । उन रूपों के द्वारा प्रकृति अपनी शक्यताओं की सदा-वृद्धिशील अभिव्यक्ति में अपनी पूर्णता प्राप्त करने की तथा अपनी दिव्य वास्तविक सत्ता के साथ एक होने की चेष्टा कर रही है । मनुष्य उसका एक विचारशील प्राणी है, अतएव, उसमें वह पहली बार क्रिया के उन स्व-चेतन साधनों और इच्छाशक्ति से युक्त प्रणालियों की रचना करती है जिनकी सहायता से यह महान् उद्देश्य अधिक द्रुत और शक्तिशाली वेग से पूरा हो सकेगा ।

 

     जैसा कि स्वामी विवेकानन्द ने कहा है योग एक ऐसा साधन माना जा सकता है जो व्यक्ति के विकास को शारीरिक जीवन के अस्तित्व के एक ही जीवन-काल में या कुछ वर्षों में, यहांतक कि कुछ महीनों में ही साधित कर दे । अतएव, योग की वर्तमान पद्धति उन सामान्य विधियों के अधिक संकुचित पर अधिक सबल और तीव्र रूपों के बीच एक संग्रह या संक्षेप से अधिक कुछ और नहीं हो सकती जिन्हें महती 'माता' अपने विशाल ऊर्ध्वमुख प्रयास में शिथिलतापूर्वक पर विस्तृत रूप में तथा मंद गति से पहले से प्रयुक्त कर रही है । इनका प्रयोग करते समय, बाह्य रूप से ऐसा अवश्य प्रतीत होता है कि सामग्री और शक्ति का अत्यधिक क्षय हो रहा है, किन्तु इससे मेल अधिक पूर्ण हो जाता है । योग-विषयक यह विचार यौगिक प्रणालियों के यथार्थ और युक्तियुक्त समन्वय का आधार बन सकता है । क्योंकि तब योग एक ऐसी गुह्य और असामान्य वस्तु नहीं रह जाता जिसका 'विश्व- शक्ति' की सामान्य प्रक्रियाओं के साथ तथा उस उद्देश्य के साथ कोई सम्बन्ध ही न हो जिसे वह अपनी बाह्य और आन्तरिक परिपूर्णता की दो महान् गतियों में

 


 

अपने सामने रखती है । बल्कि वह अपने-आपको उन शक्तियों के एक तीव्र और असाधारण प्रयोग के रूप में व्यक्त करता है जिन्हें वह पहले ही अभिव्यक्त कर चुकी है या जिन्हें वह अपने अन्दर अपनी कम उन्नत पर अधिक सामान्य क्रियाओं में अधिकाधिक संगठित कर रही है ।

 

     यौगिक पद्धतियों का मनुष्य की प्रचलित मनोवैज्ञानिक क्रियाओं के साथ वही सम्बन्ध है जो विद्युत् और वाष्प की स्वाभाविक शक्ति के वैज्ञानिक प्रयोग का वाष्प और विद्युत् की सामान्य क्रियाओं के साथ है । और, उनका निर्माण भी एक ऐसे ज्ञान पर आधारित है जो नियमित प्रयोगों, क्रियात्मक विश्लेषणों तथा सतत परिणामों के द्वारा विकसित एवं स्थापित हुआ है तथा जिसे इनसे समर्थन भी प्राप्त हुआ है । उदाहरणार्थ, समस्त 'राजयोग' इस ज्ञान एवं अनुभव पर आधारित है कि हमारे आन्तरिक तत्त्व, संयोग और कार्य तथा हमारी शक्तियां अलग-अलग की जा सकती हैं, उनमें विघटन हो सकता है, उन्हें नये सिरे से मिलाया जा सकता है तथा उनसे ऐसे नये कार्य कराये जा सकते हैं जो पहले असम्भव माने जाते थे, या फिर ये सब स्थायी आन्तरिक प्रक्रियाओं के द्वारा एक नये सामान्य समन्वय में रूपांतरित किये जा सकते हैं । इसी प्रकार 'हठयोग' भी इस बोध एवं अनुभव पर निर्भर करता है कि जिन प्राणिक शक्तियों और क्रियाओं की अधीनता हमारा जीवन स्वीकार कर लेता है तथा जिनके साधारण कार्य रूढ़ और अनिवार्य ढंग के प्रतीत होते हैं वे वश में की जा सकती हैं, उन्हें बदला जा सकता है अथवा उन्हें रोका जा सकता है । इस सब के ऐसे परिणाम निकल सकते हैं जो अन्यथा सम्भव न होते, साथ ही वे परिणाम उन लोगों को जो उनकी प्रक्रियाओं की युक्तियुक्तता को नहीं पकड़ सकते, चमत्कारपूर्ण भी प्रतीत होते है । यदि योग के किसी अन्य रूप में उसका यह गुण उतना प्रत्यक्ष न हो- कारण, ये रूप यान्त्रिक कम और सहजज्ञानयुक्त अधिक होते हैं तथा 'भक्तियोग' के समान एक दिव्य आनन्द के या 'ज्ञानयोग' के समान चेतना और सत्ता की एक दिव्य असीमता के अधिक निकट होते हैं- तो भी ये हमारे अन्दर किसी प्रधान क्षमता के प्रयोग से आरम्भ होते हैं; इनके ढंग तथा उद्देश्य ऐसे होते हैं जो उसकी दैनिक सहज क्रियाओं में, विचार में नहीं आते । जो प्रणालियां योग के सामान्य नाम के अन्तर्गत आती हैं 'वे सब विशेष मनोवैज्ञानिक प्रक्रियाएं हैं जो 'प्रकृति' -सम्बन्धी एक स्थिर सत्य पर आधारित होती हैं । वे सामान्य क्रियाओं से ऐसी शक्तियां और परिणाम विकसित करती हैं जो सदा प्रसुप्त अवस्था में तो विद्यमान थे, पर जिन्हें उसकी साधारण क्रियाएं आसानी से अभिव्यक्त नहीं करतीं, यदि करती भी हैं तो बहुत कम ।

 

     किन्तु, जैसा कि भौतिक ज्ञान में होता है, वैज्ञानिक प्रक्रियाओं की बहुलता की अपनी हानियां होती हैं, -उदाहरणार्थ, इससे एक ऐसी विजयशील कृत्रिमता उत्पन्न हो जाती है जो हमारे सामान्य मानव-जीवन को यन्त्र के भारी बोझ के नीचे दबा

 


 

देती है तथा एक प्रबल दासता के मूल्य पर स्वतन्त्रता और स्वामित्व के कुछ रूपों का क्रय करती है । इसी प्रकार यौगिक प्रक्रियाओं के कार्य की और उनके असाधारण परिणामों की भी अपनी हानियां और बुराइयां हैं । योगी सामान्य जीवन से अलग हट जाना चाहता है और उसपर अपना अधिकार खो देता है । वह अपनी मानवीय क्रियाओं को दरिद्र बनाकर आत्मा का धन खरीदना चाहता है तथा बाह्य मृत्यु के मूल्य पर आन्तरिक स्वतन्त्रता की इच्छा करता है । यदि वह भगवान् को पा लेता है तो जीवन को खो बैठता है, अथवा यदि जीवन पर विजय प्राप्त करने के लिये अपने प्रयत्नों को बाहर की ओर मोड़ता है तो उसे भगवान् को खो देने का डर रहता है । इसीलिये हम भारतवर्ष में सांसारिक जीवन और आध्यात्मिक उन्नति और विकास में एक तीव्र प्रकार की असंगति पैदा हुई देखते हैं । यद्यपि आन्तरिक आकर्षण और बाह्य मांग में एक विजयपूर्ण समन्वय की परम्परा और आदर्श को स्थिर रखा गया है तो भी इसके अधिक उदाहरण देखने में नहीं आते । वस्तुत: जब मनुष्य अपनी दृष्टि और शक्ति अन्तर की ओर मोड़ता है तथा योग- मार्ग में प्रवेश करता है तो ऐसा माना जाता है कि वह हमारे सामूहिक जीवन के महान् प्रवाह और मनुष्यजाति के लौकिक प्रयत्न के लिये अनिवार्य रूप से निकम्मा हो गया है । यह विचार इतने प्रबल रूप में फैल गया है और इसपर प्रचलित दर्शनों और धर्मों ने इतना बल दिया है कि जीवन से भागना आजकल केवल योग की आवश्यक शर्त ही नही, वरन् उसका सामान्य उद्देश्य भी माना जाता है । योग का ऐसा कोई भी समन्वय संतोषप्रद नहीं हो सकता जो अपने लक्ष्य में भगवान् और प्रकृति को एक मुक्त और पूर्ण मानवीय जीवन में पुन: संयुक्त नहीं कर देता या जो अपनी पद्धति में हमारे आन्तरिक और बाह्य कर्मों और अनुभवों में समन्वय स्थापित करने की अनुमति ही नहीं देता, बल्कि उसका समर्थन भी नहीं करता; इस कार्य में दोनों अपनी चरम दिव्यता को प्राप्त कर लेते हैं । कारण, मनुष्य एक उच्चतर जीवन का उपयुक्त स्तर एवं प्रतीक है, वह एक ऐसे स्थूल जगत् में अवतरित हुआ है जिसमें निम्न तत्त्व का रूपांतरित होना, उच्चतर तत्त्व के स्वभाव को ग्रहण करना और उच्चतर तत्त्व का निम्न तत्त्व में अपने-आपको अभिव्यक्त करना संभव है । एक ऐसे जीवन से बचना जो उसे इसी संभावना को चरितार्थ करने के लिये दिया गया है कभी भी उसके सर्वोच्च प्रयत्न की अनिवार्य शर्त या उसका समस्त और अंतिम उद्देश्य नहीं हो सकता, न ही यह उसकी आत्म-उपलब्धि के अत्यधिक सबल साधन की शर्त या लक्ष्य हो सकता है । यह किन्हीं विशेष अवस्थाओं में एक अस्थायी आवश्यकता तो हो सकता है या यह एक ऐसा विशिष्ट अंतिम प्रयत्न भी हो सकता है जो व्यक्ति पर इसलिये लादा जाता है कि वह पूरी जाति के लिये एक महत्तर सामान्य संभावना को तैयार कर सकै । योग का सच्चा और पूर्ण उपयोग और उद्देश्य तभी साधित हो सकते हैं जब कि मनुष्य के अंदर

 


 

सचेतन योग प्रकृति में चल रहे अवचेतन योग की भांति बाह्यतः जीवन के समान ही व्यापक हो जाय । और तभी हम मार्ग और उपलब्धि दोनों को देखते हुए एक बार फिर एक अधिक पूर्ण और आलोकित अर्थ में कह सकते हैं : "समस्त जीवन ही योग है । "